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मैं नारी, नहीं हारी - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

मैं नारी, नहीं हारी

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शीर्षक,,मैं नारी नहीं हारी

पहली बार जब आँखें खोली
गोद किसी की ना नसीब हुई
पीठ फेर लेटी मेरी ममता ने
बस मेरे झूले की डोर हिलाई

चोरी चोरी कभी माँ रातों में
चूम मुझे थोड़ा सा सहलाती
प्यार दुलार सब भैया को दे
अपने हाथों से दूध पिलाती

सुन उलाहने युवा हो जाती मैं
फिर घर पराए भेज दी जाती
बिना किसी घर दर के अपने
सेवा सबकी कर उम्र गंवाती

बेटी बहन पत्नी फिर माँ बन
अपने बालों में सफ़ेदी लाती
बेटे बहु के आदेश पालन कर
यूँ ही अपना अस्तित्व मिटाती

लेकिन मैं बिल्कुल भूली नहीं
मै दृढ़ नारी कभी नहीं हारी
परिस्थितियों में तपकर सदा
सोने से भी खरी मैं हो जाती

विदुषी गार्गी व अरुंधती सी हूँ
तर्क वितर्क में हराती मर्दों को
सीता सी कर्तव्यशीला भी हूँ
नहीं समाती लांछन ले धरा में

ज़हर पीती रहूंगी मीरा सी ही
राधा बन जपूंगी कृष्ण-माला
रुकमा सी सहूँगी सोतियाना
एक ही रहूंगी,बांटुगी नहीं प्रेम

शक्तिपुंज शिवप्रिया बनने को
नहीं दुहराऊंगी जन्म धरा पर
पन्ना बन बचाऊँगी उदय को
नहीं चड़ाउंगी बलि लाल की

झांसी रानी सी वीरांगना बन
कुचल दूँगी गीदड़ों सपेलों को
फिर कोई शिवानी एलीना सी
मसली नहीं जाए बेरहमी से

हाँ नारी हूँ मैं,कभी नहीं हारी
हर क्षेत्र में ही सब पर हूँ भारी
क्यूँ दुबकी रहे ये बहु बेटियां?
हक़ है उन्हें सर उठा जीने का

नारियां होती हैं अनुशासित
गुजारिश है सभी माताओं से
करें संस्कारित लाड़लों को
हाँ, मैं नारी,कभी ना हारी हूँ

सरला मेहता
94,गणेशपुरी,खजराना इंदौर
9926189045

हिंदी अंग्रेजी मालवी भाषाओं की सभी विधाओं में स्वांत
सुखाय लेखन।विभिन्न साहित्य समूहों में सक्रियता।
सेवानिवृत अध्यापिका।



"मैं नारी नहीं हारी"
सरला मेहता

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