कहानीलघुकथा
" धर्म "
शाम गहराने के साथ चौराहे पर आवाजाही बढ़ गई थी। मिश्रा जी हनुमान मंदिर जा रहे थे। अचानक धड़धड़ाता हुआ लोडिंग टेम्पो गुजरा। और एक्टिवा सवार भाई बहन को रौंधते चला गया। दोनों कोचिंग क्लास से लौट रहे थे। बेग चश्में जूतों के साथ बच्चों के क्षत विक्षत शरीर खून से सनी सड़क पर बिखर गए। लोग पुलिस को सूचित करने में जुट गए। कुछ वीडियो लेने में व्यस्त। कई तमाशबीन से संवेदनाओं में गोता लगाने लगे।
मिश्रा जी ने उन पर फट से अपनी शॉल डाली। पास ही खड़े वाहन में बच्चों को डाल सीधे निकट के अस्पताल पहुँचे।डॉक्टर्स को जैसे तैसे मना तुरंत इलाज़ शुरू करवाया। अंत में बच्चों की डायरी से नं ढूंढ उनके घर फोन लगाया।
पत्रकारों के सवालों को नकारा करते हुए मांग की गई दवाइयाँ लाने में ज़रा भी देरी नहीं की।
उनसे पूछा गया कि पुलिस को इत्तला क्यों नहीं की गई। जवाब मिला, " ज़िन्दगी से बढ़कर कुछ नहीं। मैंने दर्द के मर्म को महसूस कर कर्म किया। यही मेरा धर्म है। "
सरला मेहता