कहानीलघुकथा
" वो झूला "
राधिका अपने बेटे को झुलाते अतीत में खो जाती है। पार्क,झूला व शाम, सब वही। बस कृष्णम के स्थान पर दिव्यम। इसी झूले पर एक हुए और बिछड़े भी। बस यही एक सहारा बचा ज़िन्दगी में।
कैसे भुलाए उन लम्हों को। दोनों घण्टों बिताते जब तक कि चाँद इस मुलाक़ात का साक्षी नहीं नहीं बन जाता। अचानक एक दिन बताया कि वृद्धा माँ से मिलने गाँव जाना है। बहन के ससुराल वाले उसे छोड़ गए है। क्या मसला है,वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा।
गाँव में जो भी हुआ हो , लेकिन कृष्णम् फ़िर नहीं लौटा। राधिका झूले पर बैठने रोज़ पार्क आती। एक दिन अपने शरीर में कुछ हलचल का आभास हुआ। मानो कोई दिलासा दे रहा हो- माँ मैं आ रहा हूँ।
आज सात वर्ष पश्चात, दिव्यम दोस्तों के साथ उसी झूले पर झूल रहा है। एक अज़नबी को अपनी ओर देखते पूछ बैठता है,"कुछ चाहिए अंकल "
अचंभित हो वह व्यक्ति सोचता है, " यह एकदम मेरे जैसा क्यूँ है ? " बेटे को लेने आई राधिका दूर से ही बोल पड़ती है," यह मेरा बेटा है। " दोनों की नजरें मिलते ही अश्रु धाराएँ बहने लगती हैं।
सरला मेहता