कहानीलघुकथा
"माँ होती,बनती नहीं"
शुभदा अपना सामान पैक करते सोचती है,"मैं दुल्हन बन ससुराल आई, यहाँ से इस तरह जाना सपने में भी नहीं सोचा था। कर्नल पति शेखर के लापता होने के बाद भी यह देहरी नहीं छोड़ी। देवरानी के बेटे कुणाल के बगैर रहने का सोच भी नहीं सकती। वह उसी की गोदी में बड़ा हुआ।"
" बड़ी माँ, आप कहीं नहीं जाएँगी, हमें छोड़कर।" कुणाल साड़ियाँ छुड़ा कबर्ड में जमाने लगता है।
देवरानी तन्वी तल्ख़ी जताते पति पराग से कहती है, " देखो जी , कुणाल हमारा बेटा है। कल बहु आई तो क्या सास भी भाभी ही बनेगी। आपने तो अपना मुहँ सिल रखा है। वो जाती हैं तो जाने दो।"
कुणाल व देवर के लाख मनाने के बावजूद शुभदा अरविंदो आश्रम चल देती है।
पराग अब अतीत का राज़ खोलने को मज़बूर हो जाता है, " तन्वी, तुम्हें क्या पता,शुभदा भाभी ने तुम्हारे लिए कितना त्याग किया है।तुम एक मृत बच्चे की माँ बनी थी। और दुबारा माँ भी नहीं बन सकती थी। तुम्हारी ख़ुशी के ख़ातिर भाभी ने अपना बेटा,,,। "
तन्वी विलाप करती है, " ओह ! मैंने यह क्या कर दिया ? कुणाल , जाओ बेटा,अपनी माँ को रोको।"
सरला मेहता