कविताअतुकांत कविता
क्यों चुप बैठे हो पिता परम?
पहली बार जब आँखे खोली
गोद किसी की ना नसीब हुई
पीठ फेर लेटी मेरी ममता ने
बस मेरे झूले की डोर हिलाई
सुन उलाहने युवा हो जाती मैं
फिर देस पराए भेज दी जाती
बिना किसी घर दर के अपने
सबकी सेवा कर उम्र गंवाती
बेटी बहन पत्नी और माँ बन
अपने बालों में सफेदी लाती
इस दुनिया के दानवी दरिंदे ये
क्यूँ बचपन को ही ग्रास बनाते
दसों दिशाओं में गूंज रही हैं
चीख पुकार निर्भयाओं की
बहरे हो गए हैं जग के मानव
भूल गए अपना प्राचीन धरम
कई मासूम शिवानी एलिनाएं
कलियां फूल न बन पाई थी
लोलुप भँवरों से क्रूर दरिन्दे
नोच नोच कर मसल रहे हैं
भैया बाबा मामा चाचा सब
रिश्तों का कर रहे चीरहरण
आतंकित हैं कोमल कन्याएँ
घर बाहर हर डगर हर जगह
नर्क ही भोगती भोग्या बनकर
फिर भाग्या क्यूँ कहते इसे नर
तार तार हुई है चटक चदरिया
मैली हो रही अब धवल चुनर
तकनीकी बढ़ते विकास ने
बचपन को बख्शा युवापन
माता पिता की रंगीनियों ने
संस्कारों को कर दिया दफ़न
जब धरा पर बरपे हैं संकट
बचाई थी द्रोपति की लाज
मुक्त करो इस पाप करम से
क्यों चुप बैठे हो पिता परम?
सरला मेहता