कहानीलघुकथा
"अनकही यादें"
"अरे सुनो,मेरा ब्राउन स्वेटर निकाल दो, प्लीज़। ठंड ने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं।" पुनीत ने व्यग्र हो याद दिलाया दिव्या को। वह माथे पर हाथ रख बोली, " हे भगवान ! अब कहाँ से लाऊँ वही स्वेटर। गए साल भी हार गई थी ढूँढ़ते ढूँढ़ते। आज ये नया वाला पहन लो ना।"
" कैसी बातें करती हो ? मुझे जाना मुंबई और तुम कहती हो कि मैं दिल्ली जाऊँ।" दिव्या ने सन्दूकें टटोलते हुए ज़रा तल्ख़ी अपनाई," हाँजी, ठीक है, चले जाओ आप दिल्ली और लाओ ब्राउन स्वेटर। वहाँ सस्ते मिल जाएँगे । और सुनो मेरे लिए भी वैसा ही मैचिंग करता कार्डिगन लेते अइयो।'
" अरे मेरी पत्नी जी मुझसे पहले आप बूढ़ी हो गई। सब भुला दिया। अब बच्चे भी नहीं यहाँ।बस हम व तुम। कभी याद नहीं आते वो लम्हें जब मैं पहली बार मिला था तुमसे।और तुम गुलाबी सूट में गुलाब सी शरमा रही थी । शाम बढ़ने से ठिठुरन बढ़ गई थी। मैंने अपना स्वेटर तुम पर डाल दिया था।"
शरमाती दिव्या बोली , " ओहो ! तो ये बात है ज़नाब।" पुनीत ने नम आँखों से एक और राज बताया, " और वह स्वेटर माँ ने बड़े प्यार से बुना था। अब बताओ जिसमें मेरे जीवन के दो अहम किरदारों की खुशबू समाई हो, उससे मैं अपनी ठंड शुरू क्यों ना करूँ ? "
" अच्छा बाबा , अब मैं पूरा घर छान कर ही दम लूँगी। फिर भी नहीं मिला तो आज ही ब्राउन ऊन खरीद लाते हैं। " कहती दिव्या चाय बनाने चल देती है। "
सरला मेहता