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# किस्सा कहानी
"बीती ताही याद करो"
बात उस ज़माने की जब मेरे पति आगर में पोस्टेड थे।छः माह की बेटी लिए बिना किसी सहायक हम अकेले रहते थे,दुमंजिले घर में। बेड रूम ऊपर था। डरते डरते बेटी की सम्भाल बड़े ध्यान से करती।
एक दिन नहला पोछकर निवार वाले पलंग पर लिटा दिया।आकर देखा तो सर ग़ायब। असल में उसने सर निवार से नीचे लटका दिया। उसके बाद बस दिनभर बिना आराम किए उसी में लगी रहती।
पति देर रात आते अतः जागना पड़ता। एक दिन निद्रादेवी अपने पूरे तामझाम के साथ प्रसन्न हो गई। साहब ने जोर से दरवाज़ा बजाया,आवाज़े लगाई, गेलेरी में कंकर फेंके और आसपास वाले उठ गए। पर मैं नहीं उठी।
मेरे पति को अनिष्ट की आशंका घेरने लगी। वे जैसे तैसे पीछे के रास्ते से दीवारें फाँद पतरे की छत पर आए। तब कहीं जाकर भड़ भड़ की आवाज़ से बेटी रोने लगी। और मैंने डरते डरते दरवाज़ा खोला।
सरला मेहता