कहानीलघुकथा
फ़ैसला
इरा सिविल जज की परिक्षा हेतु जी जान से जुटी है। और पापा बेटी के लिए सुयोग्य वर तलाशने में। उनके मित्र मि बजाज का बेटा आर्य जज है।परिवार भी सुखी समृद्ध है।
बातों बातों में इरा से चर्चा करते हैं, "बेटी , तुम कहो तो बजाज से बात चलाऊँ। तुमआर्य को तो बचपन से जानती हो,,।" इरा बात काटते हुए अपना पक्ष रखती है, "पापा एक प्रोफेशन होने से ज़रूरी नहीं कि स्वभाव भी मिलते हो।" अपने पति की सदा हाँ में हाँ मिलाने वाली शैला यह सब नहीं जानती। उसके लिए पति की बात यानी पत्थर की लकीर। वह बेटी को ही समझाती है, " इरा, तम्हारे पापा ने दुनिया देखी है। तुम तो जानती हो ,मैं ठहरी साधारण गृहस्थन और तुम्हारे पापा जाने माने चार्टर्ड अकाउंटेंट। हमारी जिंदगी मजे में गुज़र रही है।"
इरा कुछ तैश में आकर जवाब देती है ," मानती हूँ आप दोनों खुश हैं,अपने अपने हालातों में। पर क्या पापा आपकी भावनाओं को समझ पाए कभी ? उनके क्लबों ने आपको किटी पार्टीज़ व शॉपिंग भर दी हैं। उन्होंने सोचा कभी आपके लेखन के बारे में ? कभी ले गए किसी थियेटर या कवि सम्मेलन में ?"
बेटी की बात सुन शैला की भड़ास भी फूट पड़ी, " हाँ मेरी गुड़िया, मैं भी किसी प्रोफेसर से ही ब्याह रचाना चाहती थी , पर,,,,,।
सरला मेहता