कविताअन्य
नमन मंच साहित्य अर्पण
विषय - अंनतर्द्वन्द
दिनांक - ११/११/२०२०
स्वयं का स्वयं से कैसा रहता है द्वंद,
नारी मन तेरे अंदर क्यों चलता रहता अंतर्द्वंद।
क्या करूं क्या ना करूं सोचकर घुटता है मन,
ये पल जो है बड़ा हसीन क्यों नहीं जी पाते स्व के संग।
जी करता है जाकर देखुँ उगते सूरज का रंग
फिर सोचो क्यों ना पहले चाय चढ़ा कर पी लुँ उनके संग।
उहापोह भरी जीवन जीकर तू हो गई है बेरंग,
अंतर्मन में चलते रहता सिर्फ एक यही प्रश्न,
क्या बनाऊं लोगों को है क्या पसंद,
क्या पहनूं कहीं लोग तो नहीं कसेंगे तंज,
चटक लाल, नीली, पीली, कत्थे
अब क्या मुझ पर फबेगा यह रंग,
इसी अंतर्द्वंद में बीत रहा तेरा जीवन।
चंद लोगों के डर से तुम सिमट जाती है क्यों,
क्यों नहीं जीती उन्मुक्त होकर बेबस रहती हर पल क्यों?
उधेड़बुन में अब बीत रहा तेरा संपूर्ण जीवन,
अब तो कुछ पल खुद जी ले तू अपने स्व के संग।
कैसे जाऊं कैसे निकलूं मैं सब को छोड़कर,
जिम्मेदारियां हैं इस घर की बहुत कुछ मेरे ऊपर।
देख अब तु रह गयी बिलकुल तन्हा,
सब की राहें हैं जुदा सब जा रहे हैं तुझे छोड़कर,
बस तू वही जकड़ी है अपनी धुरी को पकड़कर।
बेङी को अपने देख तू एक बार खोलकर,
तेरे अंदर भी मिलेगा वैसा ही एक समंदर।
लहरों का थपेड़े झेल का तेरा मन यह बेचारा,
ढूंढ रहा वो अपनी राह कैसे मिले उसे किनारा,
ना रोक अब तु उसे, बह जाने दे उसकी धारा
मन को कर अपने स्वतंत्र,
तब जीत लेगी तू ये जंग,
हारेगा फिर तुझ से ही तेरा द्वंद,
समाप्त हो जाएगा तेरे अंतर्मन में चलता अंतर्द्वंद।
स्वरचित
सविता सिंह मीरा
झारखंड
जमशेदपुर