कहानीलघुकथा
अपराजिता
ठेठ देहात में,जमींदार परिवार में कई मिन्नतों के बाद बेटी का जन्म हुआ।राजकुमारी ही थी,दादी ने नाम दिया विजेता।बचपन कब गुज़र गया पता ही नहीं चला।गाँव के किसान की बेटी ने शहर में रह शिक्षा प्राप्त की और अंग्रेजी साहित्य में एम् ए किया। हौंसलें बुलन्द थे,कुछ भी कर सकती थी बड़ा बनने के लिए। किन्तु दादाजी की सख्त मनाही थी," हमारे घर की बेटी नौकरी करेगी ? लोग थू थू करेंगे।"
जैसे कि एक बालिका की आखरी मंज़िल विवाह है,विजेता भी धूमधाम से अपने राजकुमार के साथ नए घर में आ गई। ईमानदार सरकारी अफसर पति नहीं चाहते कि उनकी रानी अलग रहकर नौकरी करे।प्यारे से बेटी बेटे का उपहार मिला।पति की स्थानान्तर वाली नौकरी के चलते विजेता ने सहकारी बैंक का प्रशिक्षण प्राप्त कर शहर आकर नौकरी करने लगी। बैंक नौकरी में इतने अवकाश कहाँ ? विजेता शिक्षा विभाग की ओर मुखातिब हुई और बी एड करके निजी विद्यालय में शिक्षिका बन गई।
बच्चों को पढ़ा लिखा ,उनका ब्याह रचा निश्चिन्त हो गई। उसने सोचा," अब पति के साथ रहूंगी।" परन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था।पति के आकस्मिक निधन ने फिर उसे दोराहे पर खड़ा कर दिया।किन्तु विजेता हार कैसे मानती। उसने पूरा ध्यान लेखन पर केंद्रित कर चल पड़ी एक नई राह पर। माँ कहने से खुद को रोक नहीं पाई, " दादी ने नाम दिया विजेता और इसने हर चुनौती को हरा दिया।इसका नाम तो अपराजिता होना था।"
सरला मेहता