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मुर्गे की बाघ - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

मुर्गे की बाघ

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मुर्गे की बाघ
लघुकथा
नन्दकिशोर जी के दोनों बेटे पुश्तैनी कपड़े की दूकान के लिए तैयार खड़े हैं। किचन से छोटी बहु वैदेही आवाज़ लगाती है," रामू काका दुकान के, दीदी व अथर्व के टिफिन्स ले जाओ।"
पूजाघर में व्यस्त पार्वती जी सोचती है," ठीक है,बड़ी बहु शीना नौकरी करती है पर सवेरे का काम तो निपटा ही सकती है। ऊपर से ख़ुद के बच्चे की भी चिंता नहीं।"
तभी वैदेही चाय के तीन कप व दवाइयां ले पापा को पुकारते हुए पूजाघर में आती है। " माँ पापा आप पहले दवाई लीजिए। फिर हम चाय पीते हैं।"
वैदेही ही घर की धुरी है। राशन सब्ज़ी आदि पूरी गृहस्थी का दायित्व उसी पर है। ऊपर से नौकरों की फ़ौज को भी आदेश देना ।सब कुछ करते हुए भी उसके चेहरे पर शिकन नहीँ।
बहुरानी पुनः रसोई का कार्य निपटाने में लगी है।
माँ पापा बैठक में इंतज़ार कर रहे हैं कि कब बहु आए और अख़बार पढ कर सुनाए। पार्वती कुछ सोचते हुए पति से कहती है," याद है आपको घर की हालत जब वैदेही पूरे महीने के लिए मायके गई थी। जली कच्ची रोटियां व बेस्वाद दाल सब्जियां।मुझे तो दवाइयों का भी याद नहीं रहता था।" नन्द किशोर जी ने हाँ में हाँ मिलाई," हाँ जी, और घर कितना अस्त व्यस्त रहता था। नौकर भी कहाँ ढंग से काम करते थे।" पार्वती बोली," सच है,बिना घरनी घर भूत का डेरा। सवेरा तभी होगा जब मुर्गा बाघ देगा।"
सरला मेहता

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