कहानीलघुकथा
लघुकथा
यशोदा माँ
दूसरी शादी की गहमागहमी के बीच प्रबोध सोचता रहा बेटे प्रखर के लिए," सारी रात माँ की तस्वीर से चिपट सिसकते हुए बमुश्किल सोया। परिधि ने स्वयं ही प्रखर को स्वीकारा था। लेकिन जितने मुंह उतनी बातें। कहने वाले कहाँ बाज आते हैं," सौतेली माँ भला क्यूँ अपनाएगी किसी और के बच्चे को। ऐसी दूसरी औरतें होती तो केकैयी ही हैं।"बच्चा बेचारा सुनकर परेशान तो हो ही जाता है।
परिधि रस्म अदाई के बाद जैसे ही प्रखर के कमरे में आती है, वह बरस पड़ता है, " जब तक आंटी थी मुझे प्यार करती थी। अब आप अपने होने वाले बच्चे से ही प्यार करोगी ना।सौतेली माँ का तो काम ही है सताना, दूर हटिए मुझसे। मैं अपनी नानी के पास चला जाऊँगा।" सजल आँखों से वह आश्वासन देती है," मेरे बच्चे तुम्हीं मेरे बेटे रहोगे हमेशा। ठीक है, मत मानो मुझे अपनी मम्मा, आंटी तो मानोगे ना।या मुझे दोस्त बना लेना।" प्रखर गुस्से में बोलता है," क्या भरोसा आपका।"
तभी दादी कहती है," बेटा , आंटी को आजमा कर तो देखो। यदि तुम्हे कोई शिकायत हुई तो आंटी को वापस अपने घर भेज देंगे।"
" ठीक है,देखता हूँ। हाँ,यदि वो मुझे कान्हा की यशोदा माँ जैसी लगी,,,तभी मैं परिधि आंटी को मम्मा बनाऊंगा।
सरला मेहता