कविताअन्य
शीर्षक - प्रेम - ( सरस्वती शर्मा सुबेदी )
न दिन थी न रात थी
न सुबह थी न शाम थी
वो धडकनो मे रहकर
हर स्वास से गुजरती थी
फूलो की खुस्बुयो मे
सूरज और चाँद की रोशनीयो मे
खेतो की लहराते हुए फसलो मे
नदियो की शान्त बहकाव मे
झर्नो की सिसकने की आहाटो मे
रातो की सन्नाटो मे
और दिन कि उज्यालो मे
हर जगह पर मिली वो
अपने हि तनमन की रुहो मे
बित गए जमाने उसे पुकारते रहे हम
मरुभू की ऊँटकी भाँती
अपने ही अन्दर प्यासे रह गए हम
मैन की तरह बेरहमी यादो मे जलते गए
मन्दिरो की घन्टी और
इन वादियो मे उसे ढुँढते रहे
अधुरा सा अकेला सा फिर
सब कुछ पाया सा और खोया सा
एहसास किया दिल ने उसकी मासुमियतका
उसके नजरो मे छलके आँशुयोका
हर अदा और वफाका छटायोका
रौंनक से भरे वो पलपल के खुशियोका
जब कब मिलते हम
वो बहुत दुर जा चुकी थी
पर यिन सासो मे मौजुद थी
हावायो की झोके मे आबाद थी
वो मेरी नसनस मे बसी है
सुबहकी रोशनीयो मे चमकती है
हर रोज नहि कहानी बनकर
इन धडकनो को पुकारती है
रौनक सी समा बनकर
मेरे हर स्वास से गुजरती है
हरदम यही कही छुपी रहती है
चौँदबी की चाँद मे महकती है ।।
काठमाडौं , नेपाल ( सरस्वती शर्मा सुबेदी )