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कवितानज़्म
खुद को कभी पढा ही नहीं पढीं कितबें हजारों हज़ार, किताबे-हयात अनपढी रही बीता मानव जनम बेकार! © डॉ. एन. आर. कस्वाँ "बशर" بشر