कवितालयबद्ध कविता
गीत कहूं या ग़ज़ल कहूं
वो अक्सर अपनी रातें यूं ही गुजारा करता है
सोया रहता है औ नींद में मच्छर मारा करता है
बिस्तर पर पांव कहा तक है ये खबर नहीं है
मुश्किल में वो अपनी जीवन गुजारा करता है
बिछौने टाट के मानिंद चुभती है उसकी रगो में
सोकर ही अपने भाग्य जगमग सितारा करता है
बहुत दूर वहां खिड़की तक जो घर अब रौशन है
उन्हीं घरों के पास वो बिस्तर लगाया करता है
खुले आसमान के नीचे अक्सर सोता आया है
अपने हाथों से हवा में वो वारान्यारा करता है
©भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"