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मेरा क्या कसूर.. - Kalpana Jain (Sahitya Arpan)

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मेरा क्या कसूर..

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मैं शंकर जिसे अब सब शीला के नाम से बुलाते हैं, शीला की जवानी जैसे गानों के साथ मुझे संबोधित किया जाता है। छोटा सा था तब मां ने मुझे अपने से दूर कर दिया था क्योंकि मैं नपुंसक/ नामर्द/आधी लड़की था। पिताजी ने मुझे स्वीकार करने से मना कर दिया था। समाज के डर से, पिताजी की धमकी की वजह से कि वो उन्हें छोड़ देंगे और मेरे छोटे भाई की वजह से माँ ने मुझे अपने से बहुत दूर एक गाँव में भेज दिया था। जहाँ कोई मुझे नहीं जानता था, ना ही मेरे परिवार को। लेकिन जिस घर में मैं रहा वहां सब मेरे जैसे थे लेकिन लड़िकयों के कपड़े पहनते थे घर-घर जाकर नाचते थे।
लोग उनका अपमान तो नहीं करते लेकिन वो सम्मान भी नहीं देते जो उन्हें मिलना चाहिए। मुझे भी नाचना सिखाया, ढोल बजाना सिखाया। माँ आती थी कभी-कभी मुझसे मिलने लेकिन रात के अंधेरे में, बहुत कुछ लाती थी मेरे लिए कपड़े,खिलौने, खाने की चीजें बहुत लाड़ लड़ाती, आशीर्वाद देती। लेकिन जब भी मैं कहता मुझे भी अपने साथ घर ले चलो तो बस रोते हुए चली जाती थी।
शुरू-शुरू में तो मैं बहुत रोता था,मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। लेकिन जैसे-जैसे बड़ा हुआ मुझे भी इन सब चीजों की आदत हो गयी दिन भर यही सब जो देखता था। अपना पेट भरने के लिये मुझे भी औरतों वाले कपड़े पहनने पड़े किसी की शादी तो किसी के गृह- प्रवेश तो किसी के घर बच्चे होने की खुशी में मैं भी नाचने बजाने लगा। घर तो जैसे भूल ही गया अब यही मेरी दुनिया थी। माँ मिलने आती थी लेकिन पिताजी कभी नहीं आये मुझसे मिलने। अब मैं सब समझ गया था कि क्या हूँ मैं। अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया था, दुनिया के साथ फिर भी दुनिया से अलग था मैं। "हिजड़ा","छक्का",आधा नर आधा नारी था मैं...शंकर से शीला बन गया था मैं, केवल मां ही शंकर कहकर बुलाती है मुझे।

आज एक शादी के लिए हम सब को एक दूसरे शहर जाना था। अगले दिन हम सब उस घर के आगे खड़े नाच रहे थे ढोल बजा रहे थे जिस घर में शादी थी। थोड़ी देर में मुझे माँ दिखी दूल्हे के साथ खड़ी वो मेरे छोटा भाई था जिसकी शादी थी। जिसे बरसों बाद देखा था,बरसों बाद पिताजी को भी देखा मन बहुत खुश था जाकर गले से लगा लूँ जैसे,आंख भर आयी थी मेरी। तभी पिताजी ने जोर से कहा "अरे जोर से बजाओ खूब नाचो मेरे एकलौते बेटे की शादी है।" ये सुनने के बाद आँखों के आंसू जैसे सूख गए थे मैं बहुत नाचा बहुत जोर से ढोल बजाया अपने छोटे भाई की बहुत बलायें भी ली।
थोड़ी देर बाद माँ आयी उसने मुझे देखा तो उसकी आंखें भर आयी लेकिन कुछ ना बोली। मुझे बहुत सारा नेग, नई साड़ी ,मिठाई दे रोते हुए अंदर चली गयी। आज बरसों बाद अपने घर गया था। लेकिन उस घर के बड़े बेटे या उस दूल्हे का बड़ा भाई बनकर नहीं। एक सवाल रह गया मेरे पास, मैं घर के अंदर क्यों नहीं जा सका?  क्यों ये समाज मुझे नहीं स्वीकारता? इसमें मेरी क्या गलती है कि मैं ऐसा हूँ। मुझे ऐसी जिंदगी क्यों जीने के लिये मजबूर कर दिया। कई महीनों बाद जब माँ आयी तो मैंने माँ से कहा "अब कभी मिलने ना आना मैं आपका बेटा शंकर नहीं नाचने गाने वाली शीला हुँ"।
दोस्तों ये कहानी नही है किसी शख्स की आपबीती है, जिसे मैं ये भी नहीं कह पाई कि मैं आपका दर्द समझती हूं क्योंकि उन पर क्या बीती है कैसे-कैसे उनके साथ लोगों ने व्यवहार किया होगा इसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। ये ऐसे व्यक्ति है जिन्हें समाज नकारता भी नहीं है तो स्वीकारता भी नहीं है। आपकी क्या राय है इस बारे में जरूर बतायें।

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दादी की परी
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