कहानीप्रेरणादायक
राजस्थान के एक छोटे से गाँव में एक बुज़ुर्ग कुम्हार रहता था, जिसका नाम रामू था। वह मिट्टी के बर्तन बनाता, उन्हें बाज़ार में बेचता और सादा जीवन जीता। गाँव के बच्चे अक्सर उसके पास बैठते, उसकी कहानियाँ सुनते और उसे काम करते देखते। रामू काका के चेहरे पर सदा एक मधुर मुस्कान रहती थी, और उसकी आँखों में ऐसा स्नेह होता था कि बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सब उसे अपना सा मानते।
रामू काका के पास एक विशेष घड़ा था, जिसे वह कभी बेचता नहीं था। वह बड़ा सुंदर नहीं था, लेकिन किसी ने देखा नहीं था कि उसमें पानी कभी खत्म होता हो। गर्मी के दिनों में गाँव के प्यासे राहगीर उस घड़े से पानी पीते और आगे बढ़ जाते। गाँव के बच्चे भी अक्सर उस घड़े से पानी पीकर खेल में लौट जाते। एक दिन गाँव के एक युवक अर्जुन ने काका से पूछा, “काका, ये घड़ा तो पुराना है, लेकिन इसमें पानी कभी खत्म नहीं होता! इसका रहस्य क्या है?”
रामू काका मुस्कराए और बोले, “बेटा, यह घड़ा केवल मिट्टी का नहीं, अनुभव और मेहनत का बना है। इसकी कहानी लंबी है, कभी समय मिला तो सुनाऊँगा।” अर्जुन ने जिज्ञासावश वादा लिया कि वह कहानी ज़रूर सुनेगा।
कुछ दिन बाद गाँव में भयंकर सूखा पड़ा। कुएँ सूख गए, तालाबों में दरारें पड़ गईं। लोग इधर-उधर पानी की तलाश में भटकने लगे। गाँव के बड़े-बूढ़े भी चिंतित हो उठे। ऐसे में एकमात्र वही घड़ा था, जिसमें रोज सुबह ताजा पानी भरा होता था। लोगों ने सोचा, शायद रामू काका रात को कहीं से पानी लाते हैं।
एक रात अर्जुन ने ठान लिया कि वह काका का पीछा करेगा और देखेगा कि वह पानी कहाँ से लाते हैं। आधी रात को रामू काका उठे, घड़ा उठाया और गाँव से बाहर जंगल की ओर चल पड़े। अर्जुन भी चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। काका एक पहाड़ी के पास पहुँचे, जहाँ एक सूखा सा चश्मा था। लेकिन उन्होंने वहाँ बैठकर ध्यान करना शुरू कर दिया। कुछ देर बाद वहाँ से हल्की-सी नमी की बूंदें टपकने लगीं और रामू काका ने उन्हें इकट्ठा कर घड़ा भरा।
अर्जुन यह सब देखकर अचंभित रह गया। उसने काका से पूछा, “ये क्या जादू है?” काका बोले, “नहीं बेटा, यह जादू नहीं, धैर्य, साधना और प्रकृति से जुड़ने की कला है। वर्षों पहले इस चश्मे से जल बहता था, लेकिन जब लोग लालच में आकर जंगल काटने लगे, तो यह सूख गया। मैंने तय किया कि इसे फिर से जीवित करूंगा। हर दिन यहाँ आकर मैंने ध्यान किया, पेड़ लगाए और मिट्टी को संभाला। धीरे-धीरे प्रकृति ने फिर जीवन देना शुरू किया।”
अर्जुन को यह सुनकर बहुत प्रेरणा मिली। उसने सोचा कि वह भी गाँव के लिए कुछ करेगा। अगले दिन गाँव में एक सभा बुलाई गई। रामू काका ने सबको पूरी बात बताई और समझाया कि किस तरह लालच और अज्ञानता से हम अपने ही जीवन स्रोतों को नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने सबको आग्रह किया कि वे पेड़ लगाएं, जल संरक्षण करें और प्रकृति का सम्मान करें।
गाँव वालों को अपनी भूल का एहसास हुआ। सबने मिलकर पुराने कुंओं की मरम्मत की, वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था बनाई और पेड़ लगाने शुरू किए। कुछ ही महीनों में गाँव की तस्वीर बदलने लगी। सूखे तालाबों में पानी दिखने लगा, पक्षियों की चहचहाहट लौट आई, और मिट्टी फिर से नम दिखने लगी।
अर्जुन ने भी रामू काका से कुम्हारी सीख ली और मिट्टी के घड़े बनाकर बेचना शुरू किया, पर हर घड़े पर एक संदेश लिखता – “प्रकृति से प्रेम करो, वह तुम्हें जीवन देगी।”
रामू काका अब वृद्ध हो चुके थे, लेकिन उनके चेहरे की चमक पहले से कहीं अधिक थी। एक दिन जब अर्जुन ने उनसे पूछा, “काका, वो पुराना घड़ा अब आपने क्यों तोड़ दिया?”, काका मुस्कराए और बोले, “अब वह प्रतीक बन चुका था। जब तक लोगों को जागृत करना था, तब तक वह था। अब हर घर में नया घड़ा है, और हर मन में नया विचार। यही असली जल का स्रोत है।”
यह कहानी सिखाती है कि सच्चा परिवर्तन बाहरी साधनों से नहीं, आंतरिक बदलाव से आता है। एक व्यक्ति की लगन और सेवा से पूरा गाँव बदल सकता है। धैर्य, समर्पण और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता—यही असली शिक्षा है, जो जीवनभर साथ चलती है।
डॉ. ऋषिका वर्मा
गढ़वाल उत्तराखंड