कवितालयबद्ध कवितागीत
**किन्नर – एक अनकहा सच**
कौन हूँ मैं? ये सवाल हमेशा चलता रहा,
हर इक जवाब मुझसे टकरा के गिरता रहा।
आईना देखूँ तो 'अक्स' मुस्कुराए,
पर आँखों की गहराई में दर्द उभरता रहा।
माँ की कोख में था तो दुनिया अनजान थी,
जन्म लिया तो पहचान अजनबी हो गई।
लोरी के बोलों में मेरा हक़ ना था,
ममता भी मुझसे परायी हो गई।
कोई कहे अभिशाप हूँ मैं,
कोई कहे कोई दोष पुराना।
दुआओं से बहिष्कृत कर दिया,
जैसे मैं पापों का कोई अफ़साना।
मंदिर की सीढ़ी पर जब भी रुका,
भगवान ने मुझसे नज़रें चुराईं।
मस्जिद के आँगन में जब भी गया,
तक़दीर ने सज्दों पे बंदिश लगाईं।
कौन हूँ मै? छूटा सवाल वही,
जिसका मुक़द्दर ही चुप हो गया।
ना देवता हूँ, ना हूँ मै आदमी,
ना ख्वाबों की मंज़िल, ना हक़ की जमीं।
जब हँसी बिखेरूँ तो दुनिया हँसे,
जब दर्द कहूँ तो तमाशा लगे।
मेरे आँसुओं में भी शोर नहीं,
जब भी यें बरसें, तो सौदा लगे।
सड़कों की धूलें लिपटती रहीं,
ख़्वाबों की चादर सिली ही नहीं।
अपनों की बाँहों से छूटे हुए,
क़िस्मत से हर एक उम्मीद हटी।
राहों के काँटे मुझे आज़माएँ,
सूरज की किरणें भी चुभकर जलाएँ।
मेरी सकियों को क़ैद किया जाए
और दुनिया है के हँसती ही जाए।
तालियों की गूँज में कैद हुआ,
मेरे हिस्से का सारा इज़हार।
जिस्म की बोली लगती रही,
मेरी रूह रही बेकरार।
रूप भी मेरा इक सौदा हुआ,
हसरतें मेरी बेज़ुबाँ ही रहीं।
महफ़िल की रौनक बना तो दिया,
पर मेरी ख़ुशियाँ कहाँ खो गईं?
चौराहों पे जब भी कदम मैं बढ़ाऊँ,
नज़रों के पत्थर मेरी हड्डियाँ तोड़ें।
आवाज़ उठाऊँ तो घुट जाए दम,
बेबसी हर एक साँस से बोले।
सदी दर सदी मैं सवाल बना हुआ,
कोई पढ़ न सका, कोई हल न हुआ।
मैं वो किताब हूँ, जिसे खोलते ही,
हर एक पन्ना जलता रहा।
'अक्स अनहद' हूँ, सदी की सदा,
जिसको ख़ुदा ने भी पढ़ना न चाहा।
ना धरती ने अपनाया, ना अम्बर ने देखा,
बस दरमियाँ ही लटकता रहा।
- आशीष सिंघल 'अक्स अनहद'