कवितानज़्म
ऐब - ओ - हुनर का पता नहीं चलता
बिन बोले बशर का पता नहीं चलता
गुफ़्तगू से ही औक़ात पता चलती है
ख़ामुशी से अंदरका पता नहीं चलता
बबूल के दरख़्त पर आम कब लगे हैं
फल बग़ैर शजर का पता नहीं चलता
दरबदर होकर समझ आती है क़ीमत
मोल अपने घर का पता नहीं चलता
होशो-हवास अपने कायम रख बशर
कब लगे ठोकर का पता नहीं चलता
© डॉ. एन. आर. कस्वाँ "बशर" بشر