कवितालयबद्ध कविताअन्यगीत
"परिणीता"
तुझ बिन कुछ उस मकान में नहीं।
कबसे राह देखता रहा वहीं।।
आधा वहीं थमा हूं इंतजार में परिणीता।
हाय!शेष मुझ पर यह क्या बीता??
शशि से कौमुदी छूटी।
चमकने की तड़प नही मिटी।।
मिट गई कुंड से बूंद जल की।
मिटी नहीं मगर की प्यास छल की।।
सूर्य का प्रकाश से क्या विरोध।
गुजरे हुए पर हाय आए क्या क्रोध।।
अंतिम इच्छा से फिर भी नाराज हूं।
तुझ बिन कैसे नव जीवन का आगाज हूं।।
शीघ्र इतनी पुष्प यह टूटा क्यों।
हाय पवन से दीये का भाग फूटा क्यों।।
टूट पड़ा कैसे ये शोक का प्रतिभास।
छू सकेगा कैसे तुझे मेरे प्रेम का आभास।।
इस मृत से अब करे कौन आलिंगम।
असमय भूचर मैं बनू कैसे विहंगम।।
पता नही शोक से या प्रेम से हूं भरा।
जानता नही उस मौत से तूं मरी या मैं मरा।।
जाऊं कहां अब तेरी खोज में।
घौंसले बिना पंछी रहता कब मौज में।।
सूर्य के छिपने से प्रकाश का अवसान है।
हाय पुष्प बिना तो बाग भी विरान है।।
प्यासा हो नही तो जल की क्या है निधि।
प्रेमी को भूलने की जानता है कौन विधि।।
जग में कोई बैर नहीं फिर भी फिरता मारा है।
कौन यहां भंवरे को पुष्प सा प्यारा है।।
सुघड़ पंछी भी पंख तो चाहता ही।
देह मरने पर भी शेष कुछ रहता ही।।
अब तो कुछ क्षण ही सांस का सांस से मेल है।
हे परिणीता!रोकना अब वियोग का खेल है।।
रचियता:- हेमंत।