कविताअन्य
अनकही दर्द की दास्तान
ड्यूटी पर थी वो, सेवा का व्रत निभा रही थी,
मासूम सी वो नारी, रोगों से लड़ रही थी।
सफेद चोले में लिपटी, एक परी की तरह,
हर पीड़ा को दूर कर, खुशियां बिखेर रही थी।
उस रात ने बदली तस्वीर, अस्पताल के आंगन में,
जहां उपचार होना था, हुआ पाप का खेल वहाँ।
आधी रात की अंधेरी छांव में,
कुछ दरिंदों ने बो दिया, दर्द का अंश वहाँ।
वो चीखती रही, पर सुनने वाला कोई न था,
वो गुहार लगाती रही, पर न्याय का दीप बुझा था।
उसकी मासूम आँखों में, सपने सारे चूर हुए,
उसके सपनों की नगरी में, खंजरों के निशान हुए।
हर चीख उसकी, बन गई सवालों का सागर,
क्या यही थी उसकी कीमत, समाज का ये ही था उत्तर?
उसके खून से सने बिस्तर पर, बिखरी वो दर्द भरी कहानी,
जिसने समाज की चुप्पी से, सुलगाई उसकी बलिदानी।
अब वो नारी नहीं, एक याद बन चुकी है,
उसकी सेवा का हर अंश, आज भी यहां बसता है।
उसके खून से सनी धरा, पूछती है सवाल हर बार,
क्या यही था उसका गुनाह, क्या यही था उसका अधिकार?
वो चली गई, पर छोड़ गई दर्द की छाप,
उसकी याद में गूंजती है, हर जगह उसकी सिसकियाँ।
एक औरत की इज्ज़त को, रौंदा गया था यूं,
लेकिन उसकी आत्मा, आज भी चीखती है, सिसकती है।
शायद कभी, कोई सुने उसकी ये पुकार,
शायद कभी, समाज को आये उसकी वेदना का एहसास।
पर आज भी वो मासूम, आसमान से देखती है,
क्या कभी मिलेगा उसे न्याय, क्या कभी उसकी सिसकियों का अंत होगा?
अखियों में आंसू लिए, दिल में दर्द दबाये,
कौन सुनेगा उस नारी की खामोश हाहाकार?