कविताअतुकांत कवितागजल
शायद, अब संभलना चाहता हूं मैं ।
परंतु कारण प्रेम के,
भूल कर स्वयं से अपेक्षित उम्मीदों को
जिसके लिए अब अज्ञात समान हूं मैं ।
उससे उम्मीदें करना चाहता हूं मैं।।
बन गया हूं स्त्रोत नकारात्मक ऊर्जा का लिए उसके
फिर भी न जाने क्यू उसे अपना बतलाता हूं मैं।।
जो किया था प्रेम उससे अब अर्थ उसका शून्य है
इन बातों का क्यों नहीं ख़ुद को ज्ञान करा पाता हूँ मैं।।
क्या ही हूं उसकी नजरो में मैं ?? कुछ नहीं
ये खुद को क्यों नहीं समझा पाता हूं मैं।।
हां एक दृष्टि में उसे अब भी पाना
और एक में,
उससे बहुत दूर जाना चाहता हूं मैं।।
चलो किया निश्चय,अगर यही प्रेम है तो
ऐसा प्रेम और नहीं करना चाहता हूं में ।
अगर है सामर्थ्य स्थिर रहने की तो करो प्रेम
नहीं तो कोई जोर नहीं सबको बतलाना चाहता हूं मैं
स्वार्थ सिद्धि का कोई साधन नहीं है प्रेम
अगर है तो
ऐसा प्रेम और नहीं करना चाहता हूं में ।
अब तो तरह पहले की बदलना चाहता हूं मैं ।
हां ,अब संभलना चाहता हूं मैं ।