कविताअतुकांत कविता
माँ का आँचल
माँ तुम्हारा आँचल मैंने जब सिर पे ओढ़ा था
था बचपन कितना सुंदर मेरा ज़िंदगी एक खिलौना था
माँ का पल्लू थाम कर जब मेरे पॉव चलते थे
माँ की चूड़ी पहन कर पूरा दिन सजते सँवरते थे
माँ से शुरू होता था दिन , माँ से मेरी साँझ हुई
माँ के आँचल में ही मेरी ज़िंदगी पूरी आबाद हुई
जब धूप में चलते चलते गर्मी हमे लगती थी
माँ अपना आँचल उढ़ाके ठंडी छाँव करती थी
वो ख़ुशबू तेरे आँचल की आज भी मुझे सताती है
भूले बिसरे दिनों की ना जाने कितनी यादे लाती है
पहने होंगे लाखों कपड़े मैंने अपनी जवानी में
पर तेरा आँचल जैसा बचपन रह गया बस कहानी में