कवितानज़्म
ख़ुशगवार हो ताबीर जिनकी हम तो वो ख़्वाब मांगे,
सतरंगी क़ौस-ओ-क़ज़ाह के दिलकश मेहराब मांगे!
हयात-ए-मुस्त'आर से अपनी राह-ए-सफ़र में चलते,
उठ खड़े हुए चंद उलझे हुए सवालों के जवाब मांगें!
सफ़र-ए-हयात के कारवाँमें बिछड़गए अहबाब बहुत,
साथ उन सब संगी-साथियों का यह दिल बेताब मांगे!
हरशख़्स हैके उलझा हुआ अपने आप से रोजमर्रे में,
इंसाफ़ की अदालत हयातसे रोज नया इक बाब मांगे!
तिरे जहाँ में आकर हमने क्या खोया और क्या पाया,
हम अपने-आप से तमाम जमा-खर्चे के हिसाब मांगे!
© 'बशर' bashar بَشَر.