कविताअन्य
जीवन यात्रा में जो भी मिले,
सबहि राखिये संग l
यहि भाँति सबहि को साधिये,
जिमि काया से सधे रहत सब अंग l
सबकी अपनी अहमियत,
सबका अपना मोल l
रुई पाथर को कबहुँ नहिं,
एक बटखरे तोल l
पानी को ही देखिये,
निज आकार न कोय l
जैसे बर्तन में पड़े,
आकार वही धरि लेव l
मनुज कि संगति पड़ता,
उसपर बहुत प्रभाव l
जैसी संगति में पड़े,
वैसो होत सुभाव l
एक ही खेत में उपजै,
मिर्ची अउरो ईख,
गन्ना देत मिठास हौ,
मिर्ची लागत तीख l
( आलोक मिश्र )