कविताअतुकांत कविता
' क्रांति '
उद्वेलित है बहुत मन !
उथल - पुथल मची है ,
भीतर कहीं !
कुव्यवस्था का दंश ,
बार - बार
उकसा रहा है..
करने को
' क्रांति '
मेरे भीतर के
मध्यवर्गीय आदमी को !
मैं भींचती हूँ ,
कसकर अपनी मुट्ठियाँ ,
नियन्त्रित करती हूँ ,
होंठों पर आती ,
अस्पष्ट बुदबुदाहट को !
ललाट पर पड़ती ,
सलवटों को ,
छुपाने की असफल कोशिश भी !
पर ,
दग्ध है मन ,
अव्यवस्था के
जहरीले साँप से !
हर - पल
चल रहा है द्वंद्व ,
अपने - आपसे !
अब समय आ गया है ...
कि प्रस्फुटित होगी ही ...
' क्रांति '