कवितानज़्म
घर में रह कर घर नहीं देखा
हमने ऐसा दरबदर नहीं देखा!
कांटों ने अपनी बांहों में रखा
मग़र गुलाब छूकर नहीं देखा!
वक़्ते रूख्स़त डबडबाई आंखें
हबीब को पलटकर नहीं देखा!
आंख ही में सूख गए वे आँसू
ज़मीं पर गिर कर नहीं देखा!
चल पड़े राह-ए-सफ़र फिर
कांटोभरा रहगुज़र नहीं देखा!
@"बशर"