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बेरंग अपने 🥹
बेरंग होने लगे मेरे अपनों के चेहरे ।
सच सुनकर क्यों नहीं मेरे पास वो ठहरे ।
आंखों से दिखाई, कानों से सुनाई, ज़ुबान से बोलना, ये सब कुछ आता है उन्हे ?
क्या आंखों से अंधे, ज़ुबान से गूंगे, क्या कानों से वो हो गए बेहरे ।
मुंह पर अच्छे तो पीठ पीछे बनते हैं बुरे !
अपना क्या कहूं मैं इनको, ये मुझसे छुपाते हैं अपने दिल में राज़ गेहरे ।
थोड़ा हस क्या लूं मैं यहां पर !
ना जाने क्यों मूझपे लगाते हैं वो पेहरे ।