कवितानज़्म
जो चल पड़े सफ़र पर तो मुड़- कर
मील का पत्थर नहीं देखा,
मशक़्क़त पर सदा किए यकीं बशर
अपना मुकद्दर नहीं देखा!
मंज़िले -मक़्सूद पर रही सदा नज़र
फिर इधर उधर नहीं देखा,
तुम भी बन कर देख लो हम-सफ़र
राहेसफ़र अगर नहीं देखा!
मश्ग़ूल खुद को सदा रखा इस क़दर
सुब्हशाम दोपहर नहींदेखा,
लौटे और फिर से निकल गए बाहर
घर में रहकर घर नहीं देखा!
वो तो डरसे डर कर ही मर गए अगर
डरसे डरकर डर नहीं देखा!
अगर सामने डर के खड़े रहे डट कर
फिर डर को डर नहीं देखा!
बेखुदी में गर इस क़दर हुए बे-ख़बर
खुदसे निकलकर नहीं देखा,
दुनिया - ए - तसव्वुर में ही हुई बसर
किसीसे मिलकर नहीं देखा!
© 'बशर' بشر.