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कवितानज़्म
फ़ुर्सते-फ़िराक़ में बैठे थे कि वस्ले-यार को बेताब होगए, नजरें उनसे क्या मिलीं कि जज़्बात सारे बेनक़ाब होगए! @"बशर"