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बीजारोपण - Manpreet Makhija (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेरणादायक

बीजारोपण

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  • 8 Min Read

"सुनो बेटा, हिंदी हमारी जान है, भाषा अगर शरीर है तो हिंदी उसके प्राण है। अपनी हिंदी भाषा पर हमेशा गर्व करना।"

"क्या सिखा रहे है डुग्गु को!" लाजो जी ने अपने पति नयनसुख जी से पूछा।

"हमारी राजभाषा हिंदी के प्रति सम्मान, प्रेम और अभिमान रखने की सीख दे रहा हूँ।"

"हहहहह...।"

"क्यूँ हँस रही हो लाजो !"

"आप की भली मानसता पर हँसी आ गई जी। अभी तीन साल का ही तो है डुग्गु और आप उसे इतनी गहरी गहरी बातें सिखा रहे है। अभी तो उसे अपने माँ बाप का नाम भी याद न होगा।"

"अरे छोटा है तो क्या हुआ! क्या नन्हे पादपों को अच्छे खाद, जल और वाष्प की जरूरत नही होगी!"

"आप ख़ामख़ा ही मेहनत कर रहे है जी। डुग्गु के माता पिता कुछ महीनों में विदेश जाकर बसने वाले है। अभी उसी की पढ़ाई चल रही है उनकी। कल डुग्गु की दादी ने बताया। "

"हम्म, न जाने ये विदेशी मुद्रा और संस्कृति के प्रति आज के युवा इतने आकर्षित क्यों है! अब तो और जरूरी है डुग्गु पर मेहनत करना। यदि अपने ही गमले की मिट्टी को झाड़ने लगे कोई पौधा , तो किसी भी अन्य जगह की मिट्टी में फलित नही हो सकता चाहे उसे कैसी भी नए दौर की खाद डाल लीजिये, वह सिर्फ बनावटी खुशबू ही देगा।"

नयनसुख जी की ये बात दरवाजे पर खड़े डुग्गु के माता पिता ने सुन ली थी। एक अच्छे पड़ोसी की भांति नयनसुख जी ने भी डुग्गु को उसके माता पिता संग लौटाने के लिए अपनी गोद से उतारना चाहा। तभी डुग्गु तुतलाती आवाज में अपना पहला शब्द बोल पड़ा... अ.... अ.. ना... र । नयनसुख जी की आँखे अश्रुपूरित हो चुकी थी।सन्तानहीन नयनसुख जी संस्कारो का जो बीजारोपण अपने आस पड़ोस के बच्चों में करना चाहते थे वह आज उस कार्य मे सफल हो चुके थे। उसी समय डुग्गु के माता पिता ने भी अपनी बोली, भाषा, देश और संस्कृति न छोड़ने का निर्णय लिया।

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दादी की परी
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