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अजनबी भाषा में भी अपनी सी मुस्कुराहट - Archana Rai (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकसंस्मरणप्रेरणादायक

अजनबी भाषा में भी अपनी सी मुस्कुराहट

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लेखिका-अर्चना राय

हमारा ट्रिप था कन्याकुमारी का और वहाँ पहुँच कर हम ठहरे विवेकानंद केन्द्रम मे। यहाँ रुकने का एक कारण यह भी था कि यहाँ से सूर्योदय का दृश्य बहुत ही खूबसूरत दिखता था। दोपहर को तीन बजे पहुँचने के बाद वहाँ की कैंटीन से कुछ खा कर हमने आराम किया। रात मे जल्दी सो गए ताकि सुबह जल्दी उठकर सूर्योदय देख सके। सुबह पाँच बजे जग के बच्चों को जगा कर चल पड़े सूर्योदय देखने के लिए। जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए सन्नाटा भी बढ़ता गया क्योंकि विवेकानंद केन्द्रम 100 एकड़ मे फैला हुआ है, शुक्र था की वहाँ हर जगह लाइट की व्यवस्था थी। खैर सनराइज़ पॉइंट पर पहुँच के जान मे जान आई क्योंकि वहाँ पर काफी भीड़ थी। भीड़ को देख कर हम लोगों मे भी अति उत्साह का संचार हुआ। जैसे-जैसे सूरज की लालिमा आसमाँ मे बिखर रही थी वैसे-वैसे लोगों के चेहरों पर रंगों की धनक बढ़ रही थी क्योंकि ये दृश्य था ही ऐसा। क्षितिज मे लालिमा का अंबार और समुद्र की लहरों की उछाल का मोतियों सा सफ़ेद रंग अति मोहक था और लोगों की अपलक नज़रें ये बताने के लिए काफी थी कि प्रकृति और मानव का रिश्ता कितना गहरा है। सूरज निकल रहा था तो समुद्र का पानी सुर्ख़ लाल दिख रहा था, ऐसा लग रहा था कि सूरज समुद्र से निकाल रहा है आसमान से नहीं। इस दृश्य को देखकर सब सम्मोहित से हो गए थे सभी बिना बोले अपलक इस छटा को देखने मे व्यस्त थे। मैं तो मंत्र मुग्ध हो गए थी मुझे तो ऐसा लग रहा था बस! समय ठहर सा गया है, सब शांत सब शून्य।
पानी का तो ओर-छोर ही नहीं दिख रहा था, पानी की लहरें जब सामने से आती तो कदम अपने आप पीछे हो जाते, क्योंकि बहाव तेज़ था। समुद्र की लहरों की आवाज़ कभी तेज़ होती कभी धीरे और कभी एकदम शांत मानो उसका अपना ही एक अलग लय ताल हो। पैरों के पास पानी का आना और उछल जाना एक खेल की तरह लगता ऐसा महसूस होता कि प्रकृति भी हमारे साथ अठखेलियाँ करना चाहती है, पर समुद्र को देखकर अपनी लघुता का एहसास होता। ऐसा प्रतीत होता कि मानव बिना कारण ही अपने आप को खास समझता है प्रकृति के सामने तो अपनी अहमियत एक चींटी के समान लग रही थी। मैं तो बस देखे जा रही थी कभी सूरज को, कभी आसमाँ को और कभी समुद्र को। इसी पल-छिन मे रम सी गयी थी। मेरी तंद्रा तब भंग हुई जब बेटी की आवाज़ आई- मम्मा अपने पैरों को तो देखो। नज़र पैरों पर गयी, पैरों पर रेत चिपकी हुई थी वो भी तीन रंगों की – एक रंग सफ़ेद, एक भूरा और एक रंग काला। ये क्या माजरा है? दिमाग दौड़ाया पर काम न आया मतलब उत्तर नहीं मिला। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए आस-पास लोगों से पूछा, जवाब नदारत क्योंकि जवाब तो स्थानीय लोगों के पास था। थोड़ा सा आगे बढ़ी तो एक औरत दिखी जो सीपियों की माला, शंख और सजावटी वस्तुएँ बेच रही थी। उससे पूछा तो अपनी टूटी-फूटी हिन्दी मे बताया कि यहाँ पर अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी आकर तीनों मिलती हैं इसलिए यहाँ की रेत ऐसी है। मैंने उनको धन्यवाद किया और उसी रास्ते पर लौटने लगी जिसपर आई थी। सूर्योदय के बाद इस रास्ते का दृश्य भी मनमोहक हो उठा था, ऐसी सुबह तो मैंने देखी ही नहीं थी। रास्ते के दोनों तरफ वृक्ष लगे थे जिसमें तरह-तरह के फूल खिले थे जिनकी खुशबू मदहोश करने वाली थी। आह! कैसी मादक खुशबू है। कानों मे चिड़ियों की चहचआहट और सामने मोर पंखों को फैलाये इधर से उधर भागते नज़र आ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि हम किसी और ही लोक मे आ गए हो।
उन दृश्यों को देखते-देखते आगे बढ़ी तो एक मोड पर कुछ लिखा हुआ दिखा तो ठहर गई, लिखी बात काफी गहरी थी ‘अगर पूरी दुनिया को समझना है तो पहले अपने आप को पढ़ो’। सच मे यदि हम अपने आपको समझ लें तो सबके साथ कैसा व्यवहार करना है ये हम आसानी से जान पाएंगे। इन्हीं बातों पर विचार करते-करते अपने कमरे कि तरफ चली जा रही थी कि मेरी नज़र एक दूध वाली अम्मा पर पड़ी वो मुझे देखकर मुसकुराते हुये बोली बेटी अपने बच्चों के लिए दूध लेती जा। ये सुनते हुए भी मैं अनसुना कर के आगे बढ़ गई फिर पीछे मुड़ कर देखा तो अम्मा को अपनी तरफ ही देखते पाया। इच्छा न होते भी मैंने एक लीटर दूध ले लिया, ज़रूरत भी थी पर अम्मा के ऊपर विश्वास न था। एक पराई जगह पर ऐसे दूध खरीद कर बच्चों को पिलाना, डर लग रहा था कि कहीं कोई समस्या न हो जाए, पर अम्मा को मना न कर सकी। खैर दूध अच्छा था जिस बात के लिए डर रही थी वैसा कुछ भी नहीं था।
पूरे दिन और रात मैं अम्मा के बारे मे ही सोचती रही कि ऐसा क्या था जो मैं उनकी तरफ आकर्षित थी और उनको भूल नहीं पा रही थी। रात भर इसी बात को सोचते-सोचते सो गई। सुबह जब आँख खुली तो मेरी नज़र घड़ी की तरफ गई और ख़याल आया कि कहीं अम्मा आकार चली न गई हो। ये सोचते हुए जल्दी-जल्दी ब्रश वगैरह करके अपने पति को कहकर अम्मा को देखने निकाल पड़ी। मैं ये देखना चाह रही थी कि ऐसा उनमें क्या है जो मैं समझ न पा रही थी। अम्मा अभी नहीं आई थी शायद मैं जल्दी आ गई थी, अब क्या करूँ तभी मेरे कानों मे मंदिर की घंटी की आवाज़ सुनाई दी फिर मैंने सोचा चलो मंदिर हो के आती हूँ तब तक अम्मा भी आ जायेंगी। मंदिर पहुँच कर आरती देखकर प्रसाद लेकर वापस आई पर अम्मा अपनी जगह पर न थे, आस पास नज़र दौड़ाई पर अम्मा न दिखी। अब मायूस होकर अपने कमरे की तरफ बढ़ी तभी दूर सामने से अम्मा आती दिखाई दी। मैं ठहर गई और उनको देखते हुए सोचने लगी कि इस बूढ़ी सी औरत मे ऐसा क्या है जिसने मुझे इतना बेचैन कर दिया इनसे मिलने के लिए।
सिर पर नारियल से बनी टोकरी मे दूध, दही, चीनी आदि समान था। सामान्य कद-काठी, बाल अधपके से ज़्यादा पके और कपड़े भी बेहद सामान्य, फिर क्या था मेरी बैचनी का सबब? तभी मेरी नज़र उनके चेहरे पर पड़ी, ओह तो ये बात है अब जाकर समझ मे आया कि मुझे उनकी मुस्कुराहट अच्छी लगी थी। उनकी मुस्कुराहट मे एक अपनापन था, एक अपनत्व था उनकी मुस्कुराहट मे एक आकर्षण था जो दूसरों को अपना बना लेती थी। वो बोलती कम थी पर उनकी मुस्कुराहट उनकी बातों को पूरा कर देती थी। मुझे अपनी तरफ देखते हुए उनको लगा शायद मुझे उनके दूध-दही का इंतज़ार है, उन्होंने आधा तमिल आधा हिन्दी मे बोला- मेरा इंतज़ार कर रहे थे, बच्चों के लिए दूध चाहिए क्या? मैंने बोला हाँ मुझे आपकी ये प्यारी सी मुस्कुराहट चाहिए। ये सुन कर वो हंस पड़ी और बोली दूध ले जाओ बेटी। उस अजनबी जगह पर, पराई भाषा मे अम्मा की मुस्कुराहट ने पराया होने का एहसास ही नहीं होने दिया।
तब तक से और भी लोग दूध-दही लेने के लिए आ गए और मैं वहीं जगह देखकर एक पत्थर पर बैठ गई और अम्मा के क्रिया-कलाप को ध्यान से देखने लगी उनके मधुर व्यवहार के कारण उनका एक भी ग्राहक खाली हाथ नहीं जा रहा था। इनमें से कुछ एक ग्राहक झक्की भी थे पर अम्मा उनको भी अपनी बातों से समझा लेती और जाता हुआ ग्राहक दूध या दही के पैकेट के साथ मुस्कुरा कर वापस जाता। ये तो अम्मा की निपुणता थी जो हर किसी को सहज रुप से अपना बना ले रही थी। 10-20 मिनट बाद जब ग्राहक कुछ कम हुए तो अम्मा की नज़र मेरे ऊपर पड़ी तो बोली आजा बेटी। जब उनके पास गई तो वो बोली मुझे देखकर क्या सोच रही थी? तब मैंने बोला कि आपकी मुस्कुराहट प्यारी लग रही है। तब वो कुछ सोचते हुये हँसके बोली ‘इस उम्र मे भी सुबह चार बजे उठ के गाय और घर का काम खत्म करके मैं इधर आती और दूध बेचती, अपनी खुशी के लिए मुझे ये अच्छा लगता। अपना काम करना और अपने हाथ मे पैसा होना, जब तक हाथ पैर चलेगा तब-तक किसी के आसरे नहीं रहने का और मैं अपना काम खुशी से करती हूँ क्योंकि मुझे खुश रहना है, मुझे जीना है और जीने के लिए खुश रहना तभी तुम जी पाओगे ।’
कुछ देर की बात-चीत के बाद अम्मा उठ के जाने लगी, मैंने भी उनको बाए बोला और अपने कमरे की तरफ मुड़ी। मैं सोच रही थी कि लोग कहते हैं कि खूबसूरत दिखना है तो आकर्षक व्यक्तित्व होना आवश्यक है और पहनावे से ही व्यक्तित्व मे निखार आता है। अच्छे पहनावे और अच्छी भाषा से एक प्रभावशाली और आकर्षक व्यक्तित्व बनता है। पर इन दोनों मे से अम्मा के पास कुछ भी नहीं था फिर भी उनका व्यक्तित्व आकर्षक था क्योंकि उनकी मुस्कुराहट, उनकी हंसी ही उनका व्यक्तित्व था, वो अंदर से खोखले नहीं परिपूर्ण थी जो आज हम नहीं हैं।

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दादी की परी
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