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उलझने बढाना कौन चाहता है - Dr. N. R. Kaswan (Sahitya Arpan)

कवितानज़्म

उलझने बढाना कौन चाहता है

  • 80
  • 3 Min Read

बे-सबब उलझने अपनी बढ़ाना कौन चाहता है
आ जाती हैं मुश्क़िलात बुलाना कौन चाहता है!

लाज़िम है धुंआ उठना आग कहीं जो लग जाए
लग जाती है दावानल लगाना कौन चाहता है!

बातबेबात कभी-कभार रूठ ही जाते हैं हबीब
खोना कभी कहीं दोस्त पुराना कौन चाहता है!

साथ रहकर भी अक्सर साथ नहीं होते हैं लोग
नाम के ऐसे राब्तों को निभाना कौन चाहता है!

छुपाना पड़ता है जमानेसे ग़म दुनिया जहाँ का
अपनों से दर्दे-दिल वर्ना छुपाना कौन चहता है!

गर ताबीर से रखना नहीं हो दूर- दूर का वास्ता
ख्वाबों में फिर बशर तेरे आना कौन चाहता है!

@ "बशर"

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